एक जोरदार आवाज़ जो पहाड़ो से टकराकर पूरे गांव में गूँजती है
"भात पाकी ग्यो हो रस्यो जाग में लागी रे"
इसका मतलब होता था आप झटपट अपनी थाली पकड़ो और रणभूमि यानी रस्यो की तरफ भाग जाओ रस्यो का ना कोई फिक्स वेन्यू नहीं होता है और ना ही कोई फिक्स टाइम
जब भात पक जाये तो तुरंत उसे गरमा गरम परोसा जाता है। रस्यो में दो तरह के लोग आते हैं कुछ धोती पहनकर और कुछ हम जैसे साधारण लोग।
जैसे हम पार्टी में हम नहा धोकर सूट-बूट पहन कर जाते हैं ठीक वैसे यहाँ भी कुछ लोग धोती पहनकर आते हैं | यहां खाना बनाने किसी कारीगर को नही बुलाया जाता है अपितु यहाँ पंडित जी बड़े प्यार और रीति रिवाजों के हिसाब से इस रस्यो को अपने रंग में रंग देते हैं और गांव वाले उस रंग में खो जाते हैं ।तभी कारीबारी अपनी अपनी ड्यूटी में लग जाए है अब सब खाना खाने वाले एक गोल घेरे में बैठ जाते है
भात वो बाटेगा जिसको सबसे ज्यादा अनुभव होगा तभी एकाएक सबके पास भात दाल टपकी पहुंच जाएगी लेकिन टूनके और खटाई के लिए इंतजार करना तो स्वभाविक है और खटाई तो शान होती है रस्यो की।
सभी खाना खाने के बाद थोड़ा बहुत अपने घर को भी ले जाते है क्योंकि यहाँ निमंत्रण केवल इंसानो को ही नही जानवरो को भी होता है उन्हें भी तो आभास् होना आवश्यक है ।मुझे यह सब इसलिए मालूम है क्योंकि मेरे गांव मै अभी भी इसी तरह की व्यवस्था है
......
पहाड़ी रस्यो की यही निशानी ,
टपकी टूनका और खटाई।।
कठिन शब्द
रस्यो-खाने का स्थान
भात- पके चावल
जाग- मुख्य मंदिर लेकिन यहाँ इसे स्थान माना गया है
कारीबारी- खाना बनाने वाले लोग
टपकी- सब्जी
टूनका-मास (उड़द)के बने बड़े(भिगाकर, पिसकर,तलकर बनता है)
खटाई- चटनी
Author: Deepanshu Kunwar