पधान का हुक्का

पधान का हुक्का

गुड़गुड़-गुड़गुड़ की आवाज़ से पता चलता था की गुड़ मॉर्निंग हो गई है, चिड़ियों के चहचहाने से पहले बूबू के खासने की आवाज़ आया करती थी। तनी हुई मूछे , गले में मफलर ,सिर में पहाड़ी टोपी , और घर की चाक में बैठे बूबू । मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में उन्हे स्वयं के बाद जगता नहीं देखा। सर्दी , गर्मी ,बरसात उनके लिए सब एक जैसे ही थे।उनके बुढ़ापे का साथी था उनका हुक्का। सगड़ में कोयले फुककर उन्हे लहूलुहान गर्म करके उसे हुक्के में रखते,उन गर्म कोयलो को चिमटे के सहारे इधर उधर करते रहते, साफ चमकता उनका पीतल का वो हुक्का पूरे गांव भर में मशहूर था। गांव के सारे बुजुर्ग कहा करते थे कि जो स्वाद पधान के हुक्के में है वो स्वाद और कहां ? सारे गांव के बुजुर्ग एक एक करके वहां आते जाते रहते। बुबू दिन भर तंबाकू को धूप में सुखाया करते , अपने हुक्के में रोज ताजा पानी भरा करते ... समय बदला ,किस्मत बदली । जो हुक्का कभी महलों की शान हुआ करता था वो अब कभाड बन गया है । पधान की बाखली अब खंडहर हो गई है । जिस पधान के हुक्के की तारीफे सात गांव के सरपंच किया करते थे आज उसके टूटे घर से गुजरते हुए लोग कहते है... पधान जाते जाते अपनी विरासत भी ले गया |

Author: Deepanshu Kunwar