अनिल कार्की - ईजा

पहाड़ के सबसे ऊँचे भीटे पे मेमने को दूध पिलाती घास चरती बकरियाँ लिखूँगा मैं जब कविता में रचूँगा ईजा उसे चाहा की कटक लिखूँगा भाँग का नमक लिखूँगा वन भँवरों का शहद लिखूँगा मैं जब ईजा के बारे में लिखूँगा गुपचुप की गई प्रार्थनाओं के बारे में लिखूँगा भरभाटी, जू-घर में रखे अशिका, उचैण ख्रीज और चावल के दानों के बारे में लिखूँगा धोती की गाँठ में छिपा के रखे पैसों के बारे लिखूँगा ईजा के बारे में लिखते हुए मैं उदास मगर हँसने वाले चेहरे के बारे में लिखूँगा खुरदुर कामगार हाथ चीरे पड़े पैरों के साथ-साथ मोमबत्ती के लेप के बारे में लिखूँगा ईजा के बारे में लिखते हुए मैं काज बारातों के बाद अपने ससुराल लौटने से पहले देली पूजती पिलपिल आँसू ढलकाती गुपचुप सोचने वाली बहनों के बारे में लिखूँगा जब लिखूँगा ईजा के बारे में उसे सैनिक बेटे की वर्दी पर सीना उचकाते पिता की तरह नहीं बल्कि बेरोज़गार बेटे की तारीफ़ में कहे दो शब्दों की तरह लिखूँगा ईजा के बारे में लिखते हुए अपनी बेरोज़गारी लिखूँगा अपनी बेरोज़गारी लिखते हुए लुटेरों की सरकार लिखूँगा सरकार लिखते हुए नारे लिखूँगा और एक दिन ईजा झल्ला के कहेगी सरकार के घर आग लगे बजर पड़े।