रोहित भट्ट - तड़पती न्यौली

जंगलों में फांसी खाई महिला वो अडभागी जो ताउम्र रही श्रृंगार से दूर अब चढ़ाते है लोग उसे सिंदूर, चूड़ी, कंधा व दर्पण । दर्पण के आगे घंटों बैठ कर अब वो पखोवती होगी अपने बालों को पहनती होगी हाथ भर भर के चूड़ियां छटकाती होगी नाक के टूके से अधबरमान तक मांग पति तो जिंदा ही ठैरा उसका! मगर कहते हैं पहाड़ में फांसी खाई महिलाएं बन जाती है न्यौली शायद वो भी न्यौली बनकर बैठी होगी किसी डाल में साम को पेड़ से सबसे ऊंचे टहनी पर तापती होगी घाम रात को गाती होगी झोड़ा चाचरी और सुबह होते ही और करुण बासती होगी।। हिराम सिब सिब कब तक भटकती रहेगी पन्यार, धार और जंगल जेठ तो काट लेगी बांज-देवदार के छैल पातलों में मगर कैसे काटेगी ह्योन ।। बना देता रे कोई उसके नाम का भी डिगर कर देता उसे मुक्त, बेचारी भटक रही होगी, दर दर। थी किसी जमाने में पहाड़ की खंखाड महिला मगर, अब तो महज एक पुथील ही ठैरी!