शहर की एक लड़की
हर रोज सुबह
दूर पहाड़ी से उगते सूरज को देख
सोचती है
अगर मेरा घर भी होता पहाड़ों में
तो मैं लहर रही होती हवाओं के साथ
अल्हड़ नदी सी बहती रहती बारोमास
शहर की शोरगुल से दूर
गाती रहती चिड़ियों से लय में लय मिलाकर
अपने हृदय के प्रेम गीत
तंग गलियों के घुटन से अलग
खुले मैदानों में होता मेरा आशियाना
गाड़ियों की बारूदी धुएं से परे
हिमालयी हवा से खिली रहती
लाल बुरांश सी
दूर कही वनों में।
वहीं दूसरी ओर
पहाड़ की एक लड़की
दूर धार से डूबते सूरज की
लालिमा से प्रभावित होकर
कहती है मन ही मन
काश उस डाने के पार शहर में
अगर होता मेरा घर
तो मेरे भाग में ना होता
हरी घास के बोझ तले दबना
ना ही साधनों के आभाव में
अंधेरे तले पलता मेरा जीवन
काश दरकते पहाड़ों के समान ही
मैं भी दरक कर पहुंच जाती शहर,
तो मुझे पढ़ने के लिए अच्छे स्कूल मिलते
सहायक होते कोचिंग संस्थान
पहाड़ की विषमताओं से परे
बहुत कम उम्र में ही पढ़ लिखकर
मैं बन जाती कोई अफसर ।
दोनों की चाहते एकदम अगल थी
एक के जीवन का दुःख
दूसरे के जीवन का सुख था।
इन सब के बीच
दोनों की इच्छाओं में एक समानता थी
कि दोनों ही प्रवास चाहती थी।
और दोनों की ये चाहत
मानवीय चेतना के मुताबिक
एकदम सटीक थी
क्योंकि पलायन
इंसान के हृदय की
पहली चाहत रही है ।