सुबह का घाम पसरता रहा
धार से घाटी की ओर
अपने कांधे में झोला टाके
हर रोज सुबह
धूर डाने को जाता रहा लिस्वा।
लिस्वे के जीवन में अनिवार्यतया
प्रवेश कर चुके थे जंगल
जहां लिस्वे ने अपनी
उम्र खपाई थी
पेड़ों के छालों को छीलते हुए।
जंगल में लिस्वे के
अपने ही गीत थे
अपने ही नृत्य
अपनी अलग ही संस्कृति थी।
जंगल के बीच पेड़ की आड़ों में
लिस्वे का अपना खरक था
जहां ठहरती थी गांव की घस्यारिने
लिस्वे के हाथ की गड़मड़ चाय पीने के लिए।
लिस्वे की चाय धूर जंगलों में
अमृत थी घस्यरिनों के लिए
ना जाने कितनी रोज
कितनी घस्यारिने
लिस्वे की चाय से
पुनर्जीवित हुई।
लिस्वा वन प्रहरी था जंगल का
गांव के बाहर के चरवाहे हो
या फिर घस्यारिने
लिस्वे ने कभी भी प्रवेश नहीं करने दिया
उन्हें अपने जंगल और अपने गांव में।
लिस्वा लड़ता रहा ताउम्र
लीसे के गमले गिराने वाले
गांव के शैतान छुकरो से।
लिस्वा जानता था एक बूंद की भी कीमत
लीसे की बूंदो से भरा था उसका जीवन
वो जानता था
लीसे की चिपकन और तेजाब की जलन को।
उसे पता था
जंगलों के जलने की पीड़ा
जंगल उसके लिए
सिर्फ जंगल नहीं था
वो उसका पिता था
जो उसके पूरे परिवार
को पालता था।
लिस्वे ने पेड़ों के घावों से
भरे थे अपने जीवन के दुःख।
मैंने देखा था मेरे प्रवास के
आखिरी दिनों तक
लिस्वे के जीवन में कभी रविवार नहीं आया।
वह हर रोज जाता रहा जंगल
हर रोज दिन ढलने से पहले
लौट आता था जंगल के वीराने से वापस।
लिस्वा गांव का सबसे
मेहनती इंसान था।
लिस्वे ने अपनी चार बेटियां ब्याही
भर भर के जेवरों के साथ।
सारे गांव ने देखा
कि लीसे को भी
सोना किया जा सकता है।