मै पहाड़ का युवा हूँ, वो युवा जो हमेशा से ही पगडंडियों पर चला है। हमें बचपन से ही सीमित साधनों में जीने की आदत है। बचपन में कभी भी हमारे घर के सामने स्कूल बस नहीं आई। हमें पीठ पर 5 किलो का बस्ता लिए दूर धार के उस पार विद्यालय जाना पड़ता था।
हमारा जीवन कुछ इस प्रकार सीमित है कि पढने के लिए गावं का इंटर कॉलेज और 12वीं के बाद फौज के अलावा शायद ही हमारे पास दूसरा और कोई रास्ता है। फिर भी हम दुःख नहीं, हमें जितना मिला हम उतने में ही खुश है। ये नहीं की हम ख्वाब नहीं देखते, सपने हमारे भी बड़े और सुनहरे होते हैं। किन्तु हमारे ख्वाबों की परिसीमा उसी दिन सिमट कर रह जाती है, जिस दिन हमें पता चलता है कि 11वीं और 12वीं में हमें भौतिक विज्ञान के शिक्षक रसायन विज्ञान और गणित का ज्ञान भी देंगे। हां फिर भी हममें से कुछ साथी होते है जो इस सीमित शिक्षा में भी असीमित ज्ञान पा लेते है। इस भौतिकतावादी युग में आज भी हम अपने इच्छित सपनों को मार पहाड़ की उसी परम्परा को जीवित रखें हैं, जिस परंपरा के तहत पहाड़ के हर घर से किसी ना किसी का फौज में जाना सुनिश्चित है।
शहरों में युवाओं के पास जीवन यापन के बहुत से साधन है। अच्छी शिक्षा पाने के लिए अच्छे शिक्षण संस्थान है। पर मैंने कहा ना हमारे पास सब कुछ सीमित है एक शिक्षक तीन विषय। किसी दिन शिक्षक छुट्टी पर हुए तो सारे क्लास की छुट्टी, किसी दिन शिक्षक का पढ़ाने का मन नहीं तो उस दिन विद्यालय आना महज 75 प्रतिशत उपस्थिति पूर्ण करने की एक जरिया ….पर सुना है शहरों में ऐसा नहीं होता। लोगों की बाते और टेलीविजनों की धारावाहियों के अनुसार वहां बड़े से क्षेत्रफल में बने भवनों के एक विशाल स्वरुप को विद्यालय कहने है। शहरों में पेरेंस मीटिंग से लेकर कई ऐसे सांस्कृतिक आयोजन होने है जिनमे अभिभावकों का जाना अनिवार्य है। लेकिन हमारे गाँव में ऐसा नहीं होता। यहाँ तो हमारे अभिभावकों ने हमारा विद्यालय देखा भी नहीं होता है। प्रवेश के दौरान भी बाखली के एक पढ़े-लिखे काक्कु(चाचा) सभी बच्चों का एडमिशन एक साथ करा आते हैं।
शहरों की स्थिति साधनों में शायद ही हमसे अच्छी हो पर कोशिशों में नहीं। क्योकि हम छोटी कक्षाओं में ही प्राइवेट जॉब के धक्के और सरकारी जॉब की महत्वता को समझ चुके होते है। यही कारण है कि जिस उम्र में लोग देश की परिभाषा को नहीं समझ पाते उस उम्र में हम देश पर मर मिटने का जुनून पाल लेते है। ये जुनून हमें किसी पुस्तक या किसी शिक्षण संस्थान से नहीं मिलता, बल्कि जिस पहाड़ की भूमि में हम जन्मे उस मात्रभूमि और हमारे उस परिवेश से मिलता है, जिस परिवेश में देश सेवकों यानि जवानों की भरमार है।
अपनी जिम्मेदारियों को हम बचपन से ही समझे हैं, घर के काम-काज में ईजा का हाथ बटाना हो या खेती बाड़ी में बाज्यू का, हम कभी पीछे नहीं हटे। हमने काम के लिए जिद रखी ना कि घरवालों के सामने खिलौनों के लिए। हमारी जो जरूरत थी उसे हमने खुद ही पूरा किया। चीड के लड़की का बल्ला बनाना होता या प्लास्टिक को गला कर गेंद, खेल के सभी उपकरण हमारे द्वारा खुद की निज़ात किए जाते थे।
पर वर्तमान समय में घर की कमजोर माली हालत और सरकार की चार वर्ष की अग्निपथ योजना हमें जरुर भयभीत कर रही है। दुखी इस बात से नहीं की चार साल बाद क्या करेंगे, बल्कि दुःख इस बात का है कि उम्रभर देश सेवा का जो स्वर्णिम सपना देखा था उसका क्या होगा ? शायद योजना देश के पक्ष में होगी, विपक्ष में तो हमारे भी नहीं है। पर सपने के मरने पर दुःख तो होता ही है। हाँ हर दुःख की तरह समय के साथ-साथ यह दुःख भी चला जाएगा। अच्छा ही है चार साल बाद देश सेवा से लौट उसी पहाड़ में जीवन व्यतीत करेंगे जिस पहाड़ में सुनहरा बचपन गुजारा था। पर सच कहूँ तो पहाड़ों में बदहाल स्वास्थ्य और अनपढ़ शिक्षा व्यवस्था के बारे में सोच कई बार बहुत दुखी होता हूँ। लेकिन तभी ख्याल आता है कि हम उन पगडंडियों पर चलने वाले मुसाफिर है जिन पगडंडियों में कदम-कदम पर चुनौतियाँ हैं।
Author: Rohit Bhatt